जब हम भारतीय महिला या नारी की बात करते हैं तो हमारे सामने अनेक उदाहरण आ जाते हैं। आज हम एक ऐसी भारतीय नारी से आपका परिचय करा रहे हैं जिनके जैसा कोई दूसरा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलता है। इस महान नारी का नाम था अहिल्याबाई। अहिल्याबाई पुरूषार्थ, दूरदर्शिता व महानता की एक अनोखी मिसाल हैं। नारी जगत के पूरे इतिहास में अहिल्याबाई जैसा कोई दूसरा नाम मिल ही नहीं सकता है।
अहिल्याबाई का बचपन
बचपन के संस्कार ही बच्चों के भविष्य का निर्माण करते हैं। औरंगाबाद जिले के चौड़ी ग्राम में सन् 1725 ई0 में जन्मी अहिल्याबाई अपने माता-पिता की लाडली बेटी थी। इनके माता-पिता धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इनके पिता मानकाजी शिंदे सहज, सरल स्वभाव के नेक इंसान थे। माता सुशीलाबाई अपनी बेटी को नित्य मंदिर ले जाती पूजा-अर्चना कराती और कथा-भागवत और पुराण सुनाती थी। वहीं से उनमें श्रेष्ठ आचरण और व्यवहार के संस्कार पड़े।
एक बार अहिल्याबाई पूजा के लिए शिवमंदिर में गई। संयोग से मालवा के सूबेदार मल्हारराव होल्कर भी वहाँ पहुँच गए। वे अहिल्याबाई की एकाग्रता और भक्ति से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अहिल्याबाई को अपनी पुत्रवधू बनाने का निश्चय किया। अहिल्याबाई का विवाह मल्हारराव के पुत्र खांडेराव के साथ हो गया। खांडेराव राजकाज में रुचि नहीं लेते थे। उन्हें हथियार चलाना भी नहीं आता था। एक बार अहिल्याबाई ने पति खांडेराव को समझाते हुए कहा ‘स्वामी आप राजपुत्र हैं। होल्कर राज्य के उत्तराधिकारी हैं। वीर-पराक्रमी पिता के पुत्र हैं, फिर भी इन हथियारों से डरते हैं। जिन अस्त्र-शस्त्रों को आपने कक्ष में सजा कर रखा है, उन्हें तो आपके सबल हाथों में होना चाहिए।’
अहिल्याबाई की सीख ने खांडेराव की सोई हुई वीरता को जगा दिया। वे राज-काज में रुचि लेने लगे और निरंतर प्रयास से अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीख लिया। अहिल्याबाई राजकाज में अत्यंत दक्ष थीं। उनकी बुद्धि तथा कार्य कुशलता से मल्हारराव अत्यंत प्रभावित थे। ये अहिल्याबाई की सूझ-बूझ पर इतना विश्वास करते थे कि बाहर जाते समय राज्य का भार उन्हीं पर छोड़ जाते।
जब आया कठिन समय
दुर्भाग्यवश अहिल्याबाई पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। एक युद्ध में उनके पति खांडेराव वीरगति को प्राप्त हो गए। अहिल्याबाई उस समय की प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ सती होना चाहती थीं। मल्हारराव ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘बेटी ! मैंने तुम्हें राजकाज की शिक्षा दी है और कभी भी अपने पुत्र से कम नहीं माना। अब तुम्हें ही शासन की बागडोर सँभालनी होगी। मैं समझँगा तुम्हीं में मेरा पुत्र जीवित है।’
अहिल्याबाई ने दत्तचित्त होकर प्रजा की सेवा करना प्रारंभ कर दिया। अभी वह पति की मृत्यु के दु:ख से उबर भी न पाई थीं कि श्वसुर मल्हारराव की भी मृत्यु हो गई। मल्हारराव की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई व खांडेराव का पुत्र मालेराव होल्कर गददी पर बैठा। वह अत्यंत कू्रर और अत्याचारी साबित हुआ। राज्य की बागडोर हाथ में आते ही वह मनमानी कर प्रजा को सताने लगा। यह देख अहिल्याबाई ने पुत्र को समझाते हुए कहा, ‘राजा प्रजा का पालक होता है। वह प्रजा के दु:ख और कठिनाइयों को दूर करता है। यदि तुम ही प्रजा को दु:ख दोगे तो वह कहाँ जाएगी? प्रजा से प्यार करो, उसके लिए कल्याणकारी कार्य करो।’ मालेराव ने मां की एक न सुनी। उसके अत्याचार बढ़ते गए जिनके कारण उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
पुत्र वियोग से अहिल्याबाई को अत्यंत कष्ट हुआ। फिर भी आँसू पोछकर अत्यंत धैर्य, साहस और हिम्मत के साथ वह राज्य की स्थिति सँभालने में जुट गई। अहिल्याबाई ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में लेने की घोषणा कर दी। इससे कुछ लोगों में बौखलाहट मच गई। मराठा पेशवा बालाजी राव के पुत्र रघुनाथ राव (राघोवा) ने अहिल्याबाई के पास संदेश भेजा कि ‘शासन करने का अधिकार केवल पुरुषों को है आप हमें राज्य साप दें।’ अहिल्याबाई ने स्वाभिमानपूर्वक उत्तर दिया, ‘राज्य है कहाँ? राज्य तो में भगवान शिव के चरणों में अर्पित कर चुकी हूँ। मैं तो केवल सेविका की भाँति इस धरोहर की रक्षा कर रही।’
शत्रुओं से राज्य की रक्षा करने के लिए उन्होंने महिलाओं की सेना तैयार की। महिला सैनिकों को उन्होंने स्वयं हथियार चलाना सिखाया तथा युद्ध एवं रण-व्यूह का प्रशिक्षण दिया। अहिल्याबाई की सेना में अत्यंत उत्साह था। जब दादा राघोबा, होल्कर राज्य हड़पने के लिए सेना सहित उज्जैन पहुंचे तब क्षिप्रा नदी के तट पर अहिल्याबाई की सेना की जोरदार युद्ध की तैयारी देखकर राधोवा के हौसले पस्त हो गए।
बाहरी शत्रुओं से राज्य की सुरक्षा में व्यस्त रहने के कारण उनके आंतरिक शासन में शिथिलता आ गई। चोर डाकुओं का आतंक बढऩे लगा। यह देखकर उन्हें बहुत कष्ट हुआ। उन्होंने घोषणा की कि जो मेरे राज्य में चोर डाकुओं का आतंक समाप्त कर देगा उसके साथ में अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह करूंगी। इस प्रस्ताव पर एक सुंदर और बलवान युवक यशवंत राव फणके खड़ा हुआ। उसने कहा-मैं होल्कर राज्य से चोर डाकुओं का आतंक समाप्त कर दूंगा, किंतु मुझे पर्याप्त धन और सेना चाहिए। अहिल्याबाई ने उसकी पूरी सहायता की। दो वर्षों में राज्य की स्थिति सुधर गई। यशवंत राव की वीरता से प्रभावित होकर अहिल्याबाई ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया।
कुशल शासक थी अहिल्याबाई
अहिल्याबाई कुशल शासक थीं। एक माँ की तरह वह अपनी प्रजा के सुख-दु:ख का ध्यान रखतीं और प्रजा की भलाई के लिए सदैव प्रयासरत रहतीं। कोई भी व्यक्ति उनके पास जाकर अपना कष्ट कह सकता था। उनकी उदारता और स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण प्रजा उन्हें ‘माँ साहब’ कहती थी अहिल्याबाई ने अनेक तीर्थस्थानों पर मंदिरों, घाटों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। उन्होंने गरीबों और अनाथों के लिए भोजन का प्रबंध करवाया।
ऐसी उदार, धार्मिक, वीर और साहसी महिला का जीवन कष्टों में ही बीता। श्वसुर, पति और पुत्र की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी। दामाद यशवंत राव की भी असमय मृत्यु हो गई किंतु माँ साहब ने इन दु:खद परिस्थितियां में भी अपना धैर्य नहीं खोया। वे निष्ठा और सूझबूझ के साथ राज्य का प्रबंध करती रहीं। अंत में साठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने यह संसार सदा के लिए छोड़ दिया।